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लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

आप दो नौकाओं पर बैठकर नदी पार करना चाहते हैं, यह असम्भव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास था, और अब तो निराशा-सी हो गई है।

 

कुँवर-तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते हो, जब तुम्हें मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं। लेकिन कोई काम धान के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धानाभाव के कारण हम टूटते देखें।

 

प्रभु सेवक-मैं बड़ी-से-बड़ी जाएदाद को भी सिध्दांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग करूँगा।

 

कुँवर-मैं भी करता, यदि जाएदाद मेरी होती। लेकिन यह जाएदाद मेरे वारिसों की है, और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जाएदाद की उत्तार-क्रिया कर दूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे कर्मों का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।

 

प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव-भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जाएदाद को हानि पहुँचेगी, तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जाएँ।

 

कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा-प्रभु, तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है! मुझे भय है कि यह अधिाकारियों को तीव्र दृष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही है; मैं भी वही चाहता हूँ, जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़ा हूँ, मंद गति से चलना चाहता हूँ; तुम जवान हो, दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्रा नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में है, अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगे, दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है। किंतु कम-से-कम हमारी संस्था को जीवित तो रहना चाहिए। मैं इसे अधिाकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।

 

प्रभु सेवक ने कुछ उत्तार दिया। बात बढ़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा चीं-चपड़ की, तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धान का प्रश्न इतना जटिल नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाए। इंद्रदत्ता ने भी यही सलाह दी-कुँवर साहब को पृथक् कर देना चाहिए। हम औषधिायाँ बाँटने और अकाल-पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा काम, इससे हमें इनकार नहीं, लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विधवंस का समय है, निर्माण का समय तो पीछे आएगा। प्लेग, दुर्भिक्ष और बाढ़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और होगी।

 

क्रमश: यहाँ तक नौबत पहुँची कि अब कितनी ही महत्तव की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक लेते, बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते। चारों तरफ से अत्याचारों के वृत्तांत नित्य दफ्तर में आते रहते थे। कहीं-कहीं तो लोग इस संस्था की सहायता प्राप्त करने के लिए बड़ी-बड़ी रकमें देने पर तैयार हो जाते थे। इससे यह विश्वास होता जाता था कि संस्था पैरों पर खड़ी हो सकती है,उसे किसी स्थायी कोष की आवश्यकता नहीं। यदि उत्साही कार्यकर्ता हों, तो कभी धानाभाव नहीं हो सकता। ज्यों-ज्यों यह बात सिध्द होती जाती थी, कुँवर साहब का आधिापत्य लोगों को अप्रिय प्रतीत होता जाता था।

 

प्रभु सेवक की रचनाएँ इन दिनों क्रांतिकारी भावों से परिपूर्ण होती थीं। राष्ट्रीयता, द्वंद्व, संघर्ष के भाव प्रत्येक छंद से टपकते थे। उसने'नौका' नाम की एक ऐसी कविता लिखी, जिसे कविता-सागर का अनुपम रत्न कहना अनुचित होगा। लोग पढ़ते थे और सिर धुनते थे। पहले ही पद्य में यात्राी ने पूछा था-क्यों माँझी, नौका डूबेगी या पार लगेगी? माँझी ने उत्तार दिया था-यात्राी, नौका डूबेगी; क्योंकि तुम्हारे मन में यह शंका इसी कारण हुई है। कोई ऐसी सभा, सम्मेलन, परिषद् थी, जहाँ यह कविता पढ़ी गई हो। साहित्य जगत् में हलचल-सी मच गई।

 

सेवक-दल पर प्रभु सेवक का प्रभुत्व दिन-दिन बढ़ता जाता था। प्राय: सभी सदस्यों को अब उन पर श्रध्दा हो गई थी

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